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"परिश्रम का महत्व "(मुहावरों सहित )

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जीवन जीने की है ये लड़ाई

  मृत्यु क्या तुम जीत पाई जीवन जीने की है ये लड़ाई ठिठुरते ठंड में मात्र दो वस्त्रो में भूख से बिलखते बच्चों की भूख मिटाने मृत्यु क्या तुम जीत पाई जीवन जीने की है ये लड़ाई! आते जाते किसी ने देखी न भूख किसी ने देखा यौवन, किसी ने दी गाली  पर क्या दिए किसी ने दो निवाले भी मृत्यु क्या तुम जीत पाई जीवन जीने की है ये लड़ाई! इतने में पीछे से एक आवाज आई क्या काम करोगी कोई माई मिलेंगे वस्त्र भोजन कुछ रुपया भी परंतु करोना ने है हा हाकार मचाई घर में निषेध प्रवेश याद दिलाई मृत्यु क्या तुम जीत पाई जीवन जीने की है ये लड़ाई!!

क्यों दूं अग्नि परीक्षा मैं

हर युग में क्यों दूं अग्नि परीक्षा मैं  कौन हो तुम जो छीनते हो मेरी स्वच्छंदता नहीं सीता मैं जो राम बनो तुम मांगो मुझसे पवित्रता का साक्ष्य धरती फाड़ उसमें समा जाऊं मैं अर्धांगिनी हूं तुम्हारी नहीं पतीता मैं क्यों दूं अग्नि परीक्षा मैं नहीं अहिल्या मैं तुम छुओगे तो स्त्री बनू जबकि दोष इंद्र का नहीं था मेरा मात्र तुम्हारी छवि देख ही मैने किया समर्पण सर्वस्व अपना क्यों दूं अग्नि परीक्षा मैं नहीं मंदोदरी मैं कि पति कुमारगी हुआ पर मैं रही उसकी संगिनी सदा यदि भायी नहीं मैं मन को तो छोड़ स्वच्छंद तुम्हें कर दूंगी खुद को दूर सदा क्यों दूं अग्नि परीक्षा मैं नहीं रुकमणी किसी और से करते प्रेम तुम तो बाधा बनू तुम्हारे पथ की सर्वस्व दूंगी अपना तो सर्वस्व जाऊंगी तुम से भी राधा सी विरहणी  बनकर छोड़ दूंगी स्वच्छंद तुम्हें भी क्यों दूं अग्नि परीक्षा में शिव की अर्धांगिनी हूं मैं बिना आज्ञा भवन में तुमको आने ना दूं हठ पर अड़ी मै प्राणों की आहुति भी दूंगी पर लो अग्निपरीक्षा तुम  अधिकार तुम्हें ना दूंगी उम्र भर रहा निहारूगी पर मैं क्यों दो अग्नि परीक्षा मैं भूल गया तू पुर

कोयल

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पीड़ा

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धीरे धीरे

धीरे धीरे चल जिन्दगी    कुछ वादे अभी बाकी है । वो लम्हेे जिन्हें जिन्दगी कहे ,वो गजारने अभी  बाकी है शाम ढले सन्घ्या संग,आंखों के जाम पिलाने बाकी है॥ धीरे धीरे -------- गीत गोविन्द के मधुर शब्दों  से शब्दों को मिलाकर   श्वासो की तार का कम्पन अधर मे रह गई स्नेह दिग्ध बातो का चुम्बन अभी  बाकी  है॥ धीरे धीरे -------- नयनों की कोर मे आए अधकचरे से आंसू ,परित्यक्ता बनी स्ञी का मोन,रूधे गले का रूदन अभी बाकी  है॥ धीरे धीरे ------- श्वासों की गर्माहट से उतर कर स्पर्श के  मायाजाल  तक पहुुंचना ,कथा चरित्र बन नाटक  के दर्शक सा बन जीवन  के रस का पान,अभी  बाकी है॥ धीरे धीरे ------ बाकी  है अभी मेरा  मुझको पाना,बाकी  है अभी अमर हो जाना ।बाकी  है अभी बाहों में आकर सिने की गर्माहट  को पाना॥ धीरे धीर -------- स्वप्न धमिल से बिखरे सपनों  को उपहार  स्वरूप  तुम्हें  देना ।क्या  पता  तुम  फेंक  दो उन्हे रद्दी का टुकड़ाा समझ किसी  गुसदान के नीचे  या ऐवज में दोगे अमिट सौगात या बिसार दोगे मेरी  ही तरह उन्हे  भी॥ धीरे धीरे चल जिन्दगी ------------